भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 1 सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 1

ेरी बात

यात्रा मेरे जीवन में एक नया उत्साह, रंग भर देती है। मैंने देश-विदेश की कईं यात्राएँ की हैं। कुछ परिवार के साथ, कुछ बड़े समूह में। मैं जब भी किसी यात्रा से लौट रही होती, तो मेरा मन दुःखी हो जाता था। वहाँ से वापस आने का मन ही नहीं होता था।

 मेरा मन, उस जगह से कभी नहीं भर पाता था। मैं उस जगह को, उस हरियाली को, प्रकृति को या महलों को कम जी पायी। कुछ छूट गया, कुछ अधूरा रह गया। इस अहसास की साथ मैंने अपने जीवन में कईं सालों तक यात्राएँ की।

 जब मेरी बेटी (अदिति) बड़ी हुई तो मुझे यात्राओं से लौटते समय हर बार कहती- “तुम ध्यान से यह सब देखती चलो, फिर मत कहना कि कुछ छूट गया!” 

मैं हँसकर कहती- “कितना भी जी लो, मेरा मन नहीं भर पता है।” स्वाभाविक भी है जब हम समूह में यात्रा कर रहे हो तो हमें सबकी पसन्द, जरूरत के हिसाब से ही घूमना होता है।

आप किसी पर्वतमाला पर दो घण्टे बैठना चाहें तो ये कतई जरूरी नहीं कि बाकी सबकी भी यही इच्छा हो। या आज का दिन आप अपने गार्डन में ही बैठकर प्रकृति को निहारना पसंद करें तो इसकी सहमति कभी नहीं मिल सकती है।

 सुबह जल्दी उठकर कहीं निकल जाना, हर दिन का सही उपयोग, ज्यादा से ज्यादा स्थान देख लेने की दौड़ ही हमारी यात्राओं में शामिल रहा है। उस जगह से निकलते समय मेरा मन रो उठता था। पर ठहराव के लिए हमारे पास समय नहीं होता था। ज्यादा पर्यटक स्थल देखने के बाद भी मेरा मन खाली रह जाता था।

वक्त बदला, बच्चे बड़े हुए, मेरी बेटी अमेरिका में शिक्षा, नौकरी के बाद करीब सत्तर दिन यूरोप घूम कर भारत आई थी। विश्व में एकल यात्रा करने वाले बहुत लोग हैं। हम भी यह अपने देश में देखते हैं। जब विदेशी सैलानी हमें दिखते हैं। तो हमें उनका यात्रा के प्रति प्रेम समझ में आता है।

अदिति की यह पहली एकल यात्रा थी। उसकी पहली यात्रा ने मेरे जीवन में मेरी इच्छाओं के नये द्वार खोल दिये। 

उसने वहाँ से आने के बाद मुझे कहा – “तुम अकेले घूमने जाओ। तुमको बहुत अच्छा लगेगा। तुम जो कहती थी ना कि कुछ छूट गया, कुछ अधूरा रह गया। वैसा नहीं होगा। तुम्हारा मन भर जायेगा।” उसके अनुभव ने उसे एक ताजगी दी थी जो वह मुझसे बाँटना चाहती थी।

“अकेले कैसे घूमेंगे? कुछ अजीब लग रहा है सोच कर!” मेरे मन में एक डर की लहर उठी। जिसका जिम्मेदार हमारे देश का आज का माहौल है शायद।

“एक बार घूम कर तो आओ! फिर देखना तुमको कैसा लगता है? सावधानी, समझदारी से घूमने में डर कैसा?” मेरी बेटी, जो शायद मुझसे ज्यादा, मुझे जानती है, ने कहा था।

मेरी पहली एकल यात्रा धर्मशाला की थी। मैं वहाँ सात दिन रही थी। वो मेरे जीवन का एक ऐसा अनुभव था जिसके लिए मैं कई सालों से बेचैन थी। 

दूसरी यात्रा लद्दाख की थी। वहाँ भी मैं सात दिन रही थी। एक बार पहले तीन दिन के लिए मैं और अदिति वहाँ गये थे। पर लद्दाख जैसी जगह के लिए तीन दिन कुछ भी नहीं है। 

फिर वही बात आती है जब तक प्रकृति को पिया नहीं, जिया नहीं तो घूमना व्यर्थ- सा ही लगता है। लद्दाख के पर्वत मुझे फिर बुला रहे थे। उस दूसरी यात्रा ने एक सुकून दिया। वो पर्वतों की श्रृंखला, नदी का पानी, बौद्ध मठ, भिक्षु सबको देखना, उसे मन भर कर जी लेना अद्भुत था। 

मेरी तीसरी यात्रा:- भूटान की, जिसने मुझे यह पुस्तक लिखने को प्रेरित किया। यह बताना मेरे लिए जरूरी हो गया कि मेरी पहली दो यात्राएँ एकल थी। इस समय मेरा नज़रिया एक यात्री के साथ-साथ एक लेखक का भी हो गया था। 

यह बताना जरूरी है क्या, कि मैंने ये यात्राएँ अकेले तय की?

मेरी नजर में “यक़ीनन हाँ!” 

उसके कईं कारण है। पहला तो यह कि मैंने जो सुकून पाया उसकी तलाश किसी और को भी हो सकती है। जीवन की इस भागदौड़ में, खुद को सम्हालते, बचाते, आगे बढ़ाते, समझाते हुए हम जीये जा रहे हैं। आँसू पीते, मुस्कान को बढ़ाते हम कभी थकने लगते हैं। 

वो सब जो प्रकृति को प्यार करते हैं। जो अपने तन्हा लम्हों में हवा, आकाश से बातें करते हैं, वो जानते, महसूस कर सकते हैं कि कुछ वक्त अपने लिए निकालना कैसा लगता है?

हम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते-करते आज वहाँ आ चुके हैं, जहाँ हम एक चैन की साँस लेने का हक रखते हैं। कितने दूर गये, कौनसे देश गये इसका तो कोई महत्व नहीं है। महत्त्वपूर्ण तो ये है कि हमने अपने लिए वक्त निकाला। खुद को जिंदा रखा!

साँस तो सबकी चलती है पर कुछ पल चाहिए जब हमारी साँसे उससे जुड़ जाए जो हमारे अंदर धड़कता है। मेरे लिए ईश्वर व प्रकृति एक ही है।

 ये महक हमें जीने की एक ऊर्जा देती है। हम अपने आप को जवाब दे सकते हैं कि हमने सबकी ही नहीं, अपने मन की भी सुनी।

भूटान हमारा पड़ोसी देश, जिसका सौंदर्य, कला, सँस्कृति सब कुछ इतनी लुभावनी है कि उस पर कुछ लिखना स्वतः ही हो गया। मैंने इस देश में बहुत कुछ ऐसा देखा जो मुझे रोमांचित कर गया। 

यहाँ के पर्यावरण को हर नागरिक सम्मान देता है! पेड़ हो या पर्वत, झरने हो या नदी सब मुस्कुराते हुए लगते हैं। कार्बन-डाइऑक्साइड का प्रतिशत भूटान में अन्य देशों की तुलना में सबसे कम है। 

शासन व्यवस्था, इसके प्रति बेहद सजग है साथ ही जनता भी अपने देश के नियमों का सम्मान करती है। अपने पर्यावरण को भूटानी नागरिकों ने बड़े जतन से सहेज कर रखा है। यहाँ की हरियाली सचमुच मुस्कुराती है।

छोटा देश, बड़ी बातें… यहाँ के रिश्तों के अनमोल मोती को सहेजकर मैं अपने साथ ले आई। यह अनुभव मैं सबसे बाँटना चाहती हूँ। 

भूटान की यात्रा के बारे में लिखने के एक साल बाद लगा कि इसमें अपनी पिछली, पहली और दूसरी यात्रा के बारे में भी लिख देती हूं। वैसे भी प्रकाशित होते- होते हम करोना के दौर से गुज़र रहे हैं। अभी अगले कुछ महीनों तक मार्केट का क्या हाल रहेगा पता नहीं? इस समय में मैंने अपने पिछले अनुभव भी आपसे साझा किए हैं। हम तीन- दो- और एक के क्रम में चलेंगे। पहले भूटान जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है। दूसरा लद्दाख और तीसरा धर्मशाला… एक तरह से पहला अनुभव

तीसरा और सबसे अहम कारण मैं अदिति को धन्यवाद देना चाहती हूँ। मैंने वह पाया जिसकी प्यास तो मुझमें थी पर साहस उसने ही भरा! तो उसका शुक्रिया तो करना ही था!

जो हम अपने बच्चों को देते हैं उसमें तो कुछ नया नहीं है। हमें बच्चों से कुछ नया मिले तो उसकी सराहना, धन्यवाद, प्रचार जरूर होना चाहिए। 

वैसे भी मन के धन से बड़ा क्या है? यदि वह मिल जाये तो उस खज़ाने को बाँटने का, लुटाने का मन करता है।

हर किसी के पास अदिति जैसी संवेदनशील बेटी हो, जरूरी तो नहीं। पर उनके पास एक पुस्तक तो है जो यह कह रही है कि आप वह जरूर करें, जो आप अपने मन के लिए करना चाहती हैं।

हमारा घर, परिवार हमें हिम्मत, साथ तब ही दे सकते हैं जब हमारे इरादे मजबूत हों। भूटान की इस यात्रा में आप मेरे साथ, मेरा हाथ पकड़कर आगे चलिये। 

क्या आप भी किसी यात्रा पर जा पाईं? क्या अपने भी कुछ पल अपने लिए सहेजे? यदि एक भी हाँ मिले, तो मेरा लेखन सार्थक हुआ।

आपके जवाब का मुझे इंतजार रहेगा…

पता नहीं कब कौन किस राह आगे बढ़ जाये, कुछ जी जाये…

सीमा जैन ’भारत'

19/9/18

ग्वालियर

भूटान दक्षिण एशिया का एक छोटा, खूबसूरत, हमारा पड़ोसी देश है। जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य, प्राचीन बौद्ध मठ व विहार के लिए जाना जाता है। जहाँ घूमने जाने का मैं कई सालों से सोच रही थी। अन्ततः उन्नीस सितंबर दो हजार अठारह को मैंने अपनी यात्रा शुरू की।

मैं उन्नीस की रात को करीब दो बजे ग्वालियर से दिल्ली के लिए ट्रेन से निकली। सुबह सात बजे दिल्ली पहुँच गई। 

 

20/9/18

 दिल्ली में मेहरौली की दादावाड़ी हमारा एक धार्मिक स्थल है। वहाँ ठहरने व खाने पीने की व्यवस्था भी है। पूरे भारत में अधिकतर हर शहर या कस्बे में भी ऐसे जैन मन्दिर या दादावाड़ी हैं, जिनमें रहने व खाने पीने का इंतजाम होता है। वह भी न्यूनतम दर पर। घर जैसा शुद्ध खाना, एक सुरक्षित वातावरण हमारे इन स्थलों की परम्परा है। जो आज भी उतनी ही श्रद्धा व समर्पण से सुचारू रूप से चल रही हैं, जितनी आज से कई साल पहले चल रही थी।

मैंने दादा गुरुदेव ( हमारे सिद्ध साधु पुरुष, जिन्हें हम दादा गुरुदेव कहते हैं। इनके मन्दिर को हम दादावाड़ी कहते हैं। भारत में चार सिद्ध दादावाड़ी हैं। जिनमें से एक मेहरोली दिल्ली, दूसरी मालपुरा, जयपुर से 130 किमी दूर, तीसरी बिलाड़ा राजस्थान व चौथी अजमेर में है। दादा गुरुदेव जिन्होंने इन स्थलों पर कभी साक्षात दर्शन दिए थे। जैन समाज में इनका बहुत महत्व है।) नाश्ता करने के बाद कुछ देर मन्दिर में बैठी।

बाहर काउंटर पर आकर अपना पेमेंट करना था। उन्होंने मुझे मेरा डिपॉज़िट मनी पूरा वापस कर दिया। सुबह कुछ घंटे ठहरने का उन्होंने कोई चार्ज नहीं लिया। मैंने उनको इसके लिए धन्यवाद कहा। मैं मेट्रो तक जाने के लिए काउंटर पर बात कर रही थी कि एक व्यवस्थापक ने प्रतिदिन आने वाले भक्त से कहा –“आप इनको मेट्रो स्टेशन तक छोड़ देंगे क्या?”

“हाँ, मैं आपको छोड़ देता हूँ!” कहकर उन्होंने अपनी स्वीकृति जताई तो मैं अपने इकलौते केबिन लगेज के साथ गाड़ी में बैठ गई। (यात्रा पर आवश्यक सामान तो जरूर हो, पर सामान का कम होना, हमारे लिए बहुत सुविधाजनक होता है।) 

मैं डायबिटिक हूँ। कुछ खाने का सामान अपने साथ हमेशा रखती हूँ। वो खत्म हो जाये तो दूसरा स्थानीय बाजार से ले लेती हूँ। एक साथ ज्यादा सामान के बोझ से राहत और फल व बिस्किट तो हर जगह मिल ही जाते हैं।

 मैंने कुतुब मेट्रो स्टेशन से मेट्रो लेकर एयरपोर्ट जाने का सोचा, एक तो समय कम लगता और पैसे की बचत भी हो जाती। 

कुतुब से मेट्रो में बैठने के बाद समझ में आया कि ये ट्रेन पहले नई दिल्ली जाएगी फिर वहाँ से टर्मिनल तीन तक जाएगी। शटल हमें टर्मिनल तीन से एक तक ले जाएगी। टर्मिनल एक जो घरेलू उड़ान का केंद्र है। मेरी उड़ान वही से थी।

माना कि मेरे पास समय है फिर भी इस सब में थोड़ा भी कम ज्यादा हुआ और मेरा विमान ही छूट गया तो? ट्रेन में बैठने के बाद लगा ये निर्णय गलत है। अभी दस बज कर तीस मिनिट हुए थे।

 एक बीस पर मेरी फ्लाइट है फिर भी ‘दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे!’ (यदि आप मेट्रो में यात्रा कर चुके हैं तो जानते होंगे कि हर स्टेशन पर ट्रेन रुकती है। यह सन्देश हर बार बोला जाता है।)

 सुन-सुनकर तो मेरी हालत खराब हो जायेगी। और ऐसे में मैं देरी से पहुँची तो? इतने में साकेत स्टेशन आया। मैं साकेत के मेट्रो स्टेशन से बाहर निकल गई।

 बाहर निकल कर टैक्सी से विमानतल पर पहुँची। ये सब करते-करते भी करीब ग्यारह पचास हो गया था। मुझे लगा मैंने सही निर्णय लिया। समय पर एयरपोर्ट पर पहुंचना अपने लिए राहत का काम है।

विमान में बैठना एक चैन की साँस देता है कि अब हम अपनी मंजिल से ज्यादा दूर नहीं है। भूटान जिसकी सुंदरता मुझे मोहित कर देती थी। जिसके पर्यटन स्थलों के फोटो मुझे अपनी ओर आकर्षित करते रहे, एक दिन बाद मैं उस जमीन पर पैर रख सकूंगी। यह सोच कर मैंने अपनी आंखें बंद कर ली।

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कुछ बातें भूटान के बारे में

भूटान का राजतंत्र (भोटान्त) हिमालय पर बसा दक्षिण एशिया का एक छोटा और महत्वपूर्ण देश है। यह चीन (तिब्बत) और भारत के बीच स्थित भूमि आबद्ध(Land Lock)देश है। इस देश का स्थानीय नाम ड्रुग युल है, जिसका अर्थ होता है अझ़दहा का देश। यह देश मुख्यतः पहाड़ियों से घिरा है। केवल दक्षिणी भाग में थोड़ी सी समतल भूमि है। यह सांस्कृतिक और धार्मिक तौर से तिब्बत से जुड़ा है, लेकिन भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर वर्तमान में यह देश भारत के करीब है। 

भूटान का प्राचीन इतिहास मिथकों के रूप में है। अनुमानतः भूटान में 2000 ईसापूर्व बस्तियाँ बसनीं शुरू हुईं। दन्थकाथाओं के अनुसार इस पर 7वीं शती ईसापूर्व में कूच बिहार के राजा का अधिकार था। किन्तु 9वीं शताब्दीं में यहाँ बौद्ध धर्म आने के पूर्व का इतिहास अधिकांशतः अज्ञात ही है। इस काल में तिब्बत में अशान्ति होने के कारण बहुत से बौद्ध भिक्षु यहाँ आ गये। 

12वीं शताब्दी में स्थापित ड्रुक्पा कग्युपा सम्प्रदाय आज भी यहाँ का प्रमुख सम्प्रदाय है। इस देश का राजनीतिक इतिहास, इसके धार्मिक इतिहास से निकट सम्बन्ध रखता है। 

सत्रहवीं सदी के अंत में भूटान ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया। 1865 मे ब्रिटेन और भूटान के बीच सिनचुलु संधि पर हस्ताक्षर हुआ, जिसके तहत भूटान को सीमावर्ती कुछ भूभाग के बदले कुछ वार्षिक अनुदान के करार किए गए। ब्रिटिश प्रभाव के तहत 1907 में वहाँ राजशाही की स्थापना हुई।

 तीन साल बाद एक और समझौता हुआ, जिसके तहत ब्रिटिश इस बात पर राजी हुए कि वे भूटान के आंतरिक मामलों में हस्त्क्षेप नहीं करेंगे लेकिन भूटान की विदेश नीति इंग्लैंड द्वारा तय की जाएगी। बाद में 1947 के पश्चात यही भूमिका भारत को मिली। दो साल बाद 1949 में भारत भूटान समझौते के तहत भारत ने भूटान की वो सारी जमीन उसे लौटा दी जो अंग्रेजों के अधीन थी।

भूटान का धरातल विश्व के सबसे ऊबड़ खाबड़ धरातलों में से एक है ! 100 किमी की दूरी के बीच में 150 से 7000 मी. की ऊँचाई पायी जाती है। भूटान में पहले भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा मालदीव से कोई प्रवेश कर नहीं लेता था, पर अब लेना शुरू कर दिया है। 

कुछ लोगों के अनुसार भूटान संस्कृत के भू- उत्थान शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ऊंची भूमि इसके अलावा भी भूटान के कई नाम रहे हैं।